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Thursday, 14 August 2014

ख़याल ... कुछ यूँ भी।

ख़याल... कुछ यूँ भी।

आदतन फिर वही गलतियाँ दोहराने का ख़याल आया है,
किसी शाख़ से गिर कर किसी दिल-ए-किताब में खोने का ख़याल आया है।

खुशमिजाज़ी में इतने दिल तोड़ दिए मैंने,
आज जाने क्यूँ बेवजह रोने का ख़याल है।

जागती रातों को दिन सा गुज़ार लिया मैंने,
आज मुद्दतों बाद सोने का ख़याल आया है।

जबसे जिस्मानी रिश्तो की लिबास उतार दी है,
सिर्फ परछाइयों से लिपटने का ख़याल आया है।

देख लिया इश्क को हुस्न के चौराहे पे भटकते हुए,
इसलिए आवारगी अपनाने का ख़याल आया है।।

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