कल साल का आखिरी रविवार गुज़रा,
बड़े दिन की रात में सर्द ख़याल गुज़रा।
शहर के चौराहे से बचते हुए उस रात,
मैं तेरी यादों की तंग गलियों से गुज़रा।
सब घूर रहे थे मुझे जैसे मैं सैंटा कोई,
जुस्तजू में तेरी मैं फकीरों सा गुज़रा।
ढूँढा तुझे स्याह रात की रौशनी में,
और हर अक्स तुझ में छुप के गुज़रा।
अब हफ़्ते में तफ़्तीश बाकी रहेगी,
कि तेरे संग का हर पल कैसे गुज़रा।
इक बार तू मिल के मुझे देखने दे,
तेरी हिस्से में से मैं हूँ कितना गुज़रा।
©Abhilekh
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