कलम और स्याही....
सोच की कलम और जज्बातों की स्याही से,
कभी पन्नों पर एहसासों का इन्द्रधनुष खिलता था।
कभी लिख कर तो कभी चित्रित कर,
हर रंग का किस्सा उन पन्नों पर उकेरता था।
अब वही स्याही कुछ ग़मज़दा सी हो गयी,
जिससे कभी मोहब्बत के अफ़साने लिखते थे।
अब उस कलम की भी हिम्मत टूट गयी,
जिससे कभी रूमानियत का समां बुनते थे।
आख़िरकार कलम ने पूछा स्याही से,
क्या हमारे रिश्ते का यही वजूद लिखा था।
स्याही ने आह भरकर जवाब में कहा,
पन्नों पर बिखरे रिश्तों का यही मंज़र होना था।
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