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Saturday, 22 February 2014

Published Poetry: कानून की आँखों पे पट्टी कब तक ?

कानून की आँखों पे पट्टी कब तक ?
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मतलबपरस्त सी इस दुनिया में, 
पक्षपात से परे रहने के लिए,
गांधारी की तरह तुमने भी अपनी आँखों पे पट्टी बाँध लिया...!
और कौरवों की तरह तुम्हारे ही लोगों ने, 
न्याय की व्यवस्था को पेशा बना,
न्यायप्रणाली को सरेआम तुम्हारे ही समाज में बेच दिया...!
तुम्हारा ही कहना था कि सही न्याय के लिए, 
सबूतों को न्याय की तराजू में तौल कर,
किसी के लिए तभी सही ग़लत का फैसला किया जायेगा...!
अब तुम्हारे फैसले का क्या वजूद है, 
जब हर जिरह और सुनवाई से पहले ही,
खरीद-फरोख्त से हर गवाह और फैसला भी तय हो जायेगा....!
ये तुम कौन सा न्याय करना चाहती हो, 
हर वक़्त आँखों पे पट्टी बाँध कर,
यहाँ तो रिश्वत पे जुर्म भी आसानी से होती है रिहा...!
बहुत हुआ अब उतार भी फेंको ये पट्टी,
अब समय हुआ है यथार्थ में आ जाओ,
संशोधन का नाटक ख़त्म करो और अब अपनी रफ़्तार बढाओ ...!
गर अब न सुधारी अपनी न्याय व्यवस्था,
तो फिर एक क्रान्ति का दौर होगा,
जहां हर इंसान न्यायालय को भूल खुद ही सड़क पर फैसला कर रहा होगा...!

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