Escalator....
Escalator का रुख देखा,
कितना बेपरवाह और मग्न।
कदम बढ़ाऊँ तो वह भी चले,
वरना जड़वत सा वहीँ पड़े रहे।
एक दौर शुरू होता जैसे जन्म के बाद,
कुछ ऐसा चलता मेरे एक कदम के बाद।
मैं तो रुक गया आराम की लालसा में,
पर यह बढ़ रहा अपनी ही धुन में।
दोनों पहुंचे अपनी मंज़िल पर,
पर यह तो फिर चल पड़ा दो घड़ी रुक कर।
जैसे मेरा ही अस्तित्व कितना स्वार्थी सा है,
बस अपने मतलब से सरोकार रखता है।
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