धर्म का जन्म पहले हुआ या इंसानियत पहले आयी,
कुछ इसी उलझन में आज की सामाजिक व्यवस्था है बिगड़ गयी।
धर्म के नाम पर इन्सान आडम्बर से बाझ नही आते,
और अपनी ही इंसानियत को बेशर्मी से सरेआम है बेच खाते।
धर्म की आड़ में अपने समाज में कितने कुकर्म हो रहे है,
और इंसान अपनी ही बिरादरी में दिनोंदिन धूमिल हो रहे है।
इन्सान खुद तो बँट गया ना जाने कितने वर्गों में,
और भगवान को भी बाँट लिया अपने अनुसार धर्मों में।
बस उपदेश भर है की इश्वर एक है,
दरअसल में विडम्बना यह है कि इंसान अनेक है।
पल भर में पत्थर और शुन्य को सब कुछ मान लेते है,
लेकिन इंसानियत के वक़्त जाति और धर्म पहले गिने जाते है।
ख़ुदा ने दुनिया में इंसान बनाया कुछ सोचकर,
और इंसानों ने दुनिया बदल दी धर्मों के नाम पर।
आज भाईचारा किताबों में सिमट गयी है,
सिर्फ ग्रंथों की लड़ाई सर्वोपरि हो गयी है।
खून का रंग भले सबका सुर्ख होता है,
लेकिन उसका अस्तित्व घायल जिस्म से होता है।
जहाँ धर्म ने आपसी सौहार्द के बजाय नफरत को जन्म दिया है,
वहीँ इंसान ने धर्म को विभित्स बना उसे कलंकित कर दिया है।
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