चुनाव...
आज़ाद भारत में एक व्यवस्था बनायी गयी है,
जनता अपना प्रतिनिधि खुद चुने ऐसी प्रणाली दी गयी है।
जनता का वो विश्वसनीय देश का कर्णधार है,
जिसके इशारों पर राजनीति का होता व्यापार है।
५ साल की सत्ता में ना जाने कितने दौर आते है,
जनता की हर उम्मीद उसी तरह धरे रह जाते है।
इस राजनीति के खेल में नेता आते जाते रहते है,
बस जनता हर साल मूक दर्शक का किरदार निभाते है
चुनाव के वक़्त का चुनाव भी नेता खुद तय करते है,
और जनता एकजुट मन मसोस कर सब सहते रहते है।
वादों का पुलिंदा अक्सर देखने को मिलता है,
जनता फिर भी हर साल तवज्जो दिए जाती है।
मिलीभगत से चुनाव के बहाने जेबें भरी जाती है,
और जनता हर बार चुनाव के बहाने ठगी जाती है।
बेबुनियादी मुद्दों का अक्सर माहौल बनाया जाता है,
जनता के मुश्किलों को मखौल बता दरकिनार किया जाता है।
पूंजीवादियों की सिफारिश में महंगाई घर आती है,
और आम जनता की खुशियाँ आँसुओं में बह जाती है।
चुनाव में चुनने का सवाल बस सवाल बनी रह जाती है
और जनता की किस्मत किसी सिरफिरे के हाथ लग जाती है
आज प्रजातंत्र में सत्तारूढ़ अपना शासन चलाते है
और प्रजा अपने को शोषित होते देख जिए जाते है।
यह चुनाव का अभिप्राय कुछ धुंधला सा है,
सच में यह पारदर्शिता की खाल में स्वार्थ का साधन सा है।