Saturday, 26 July 2014

A Published Anthology निर्झरिका 3/5

गुमशुदा एहसास।

कुछ मेरे एहसास थे जो आज गुमशुदा से हैं,
मुझसे नाराज़ हैं या फिर तुझसे जुदा से हैं,
... बस इस बात का इल्म नही।

जो मचलते थे कभी बखूबी तेरे मिलने पर,
इतराते थे मदमस्त हो तेरी मुस्कान पर,
... अब उनकी परछाई भी नही।

वो एहसास जो मेरे जीने की वजह थे,
तेरे वादों के सहारे जो कभी मचलते थे,
... आज उनका कोई पता ही नही।

वो जज़्बातों का कारवाँ जो दूर तक चला,
कभी अकेले दौड़ा तो कभी साथ चला,
... आज उनका कोई निशाँ तक नही।

Monday, 21 July 2014

A Published Anthology निर्झरिका 2/5

इन्द्रधनुष।

कुछ गहरे से …कुछ हल्के से,
इन्द्रधनुषी… रंग से है रिश्ते।

हर रँग के तरह… अपना ही,
एक वजूद लिए… होते है रिश्ते।

प्यार और …तकरार की बारिश में,
भीग कर खिलते है …रंगीन रिश्ते।

आकाश सी …बड़ी ज़िन्दगी को भी,
रंगीन सी छटा से… खुश रखते है रिश्ते।

हल्की सी बारिश …फिर गुनगुनी धुप,
ऐसे ही एहसासों से… घिरे है रिश्ते।

एक दूजे से बंधे …जाने-अनजाने में,
रंगों में जुड़े से लगते हैे …हर रिश्ते।

चाहे करीब हो …या हो दूरियाँ,
दिलों में घर किये होते है… रिश्ते।

ज़िंदगी खत्म हो …या बढ़े दूरियाँ
अपनी अह्मिअत …जताते है रिश्ते।

Tuesday, 15 July 2014

A Published Anthology निर्झरिका 1/5

शुक्तिका प्रकाशन की हिंदी साहित्य विशेषांक "निर्झारिका" में मेरी 5 कविताओं को प्रकाशित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आप लोगों के समक्ष पेश कर रहा हूँ। उम्मीद है पसंद आएगी...

वादों का जनाज़ा।

वादे...जो पुरे न हो सके,
कुछ तुमने किये तो कुछ मैंने किये थे।

वादे...जो मुक़म्मल न हो सके,
कभी वक़्त की कमी रही कभी खुद बहुत रफ़्तार में रहे।

वादे...जो वफ़ा न कर सके,
कभी रिश्तों की पैरवी थी तो कभी खुद रिश्तों से परे थे।

वादे...जो अपना वजूद न पा सके,
कभी जज़्बातों में बह गए तो कभी उनको ही भूल गए।

वादे...जो कभी अपने न हो सके,
कभी एहसासों के साथ थे तो कभी एहसास ही साथ नही थे।

वादे...जो फ़ौलाद न हो सके,
कभी खुद के लिए टूटे तो कभी किसी रिश्ते के लिए।

वादे...जो दम भर भी न जी सके,
कभी आसुओं में बहे तो कभी पन्नों पर स्याही बन बिखर गए।

Sunday, 29 June 2014

कन्या और उसके रूप...

कभी देवी हूँ इस नभ के नीचे, कभी सिर्फ स्त्री हूँ धरा पर।

बोझ हूँ मैं जिम्मेदारियों के नीचे, और एक खर्च हूँ हर परिवार पर।

कभी कमसिन हूँ कलम के नीचे, और हवस हूँ  बिस्तर पर।

बचपन गुम मेरी मज़दूरी के नीचे, क्यूँकी गरीबी है मेरे जिस्म पर।

शिक्षा बेपरवाह है ज़रूरत के नीचे, लेकिन रोज़गार का बोझ है मेरे सिर पर।

Wednesday, 11 June 2014

सागर किनारे....

भीगे समंदर के किनारे...
यह गीले अलसाए से रेत..
मेरे पाँव में छुपकर साथ चले आते है।

और चाँदनी की ठंडाई में...
नहाये कुछ अबरख...
खुद की शरारती चमक पर मुझे उकसाते है।

की आओ एक पहर गुज़ारो...
कम से कम समंदर को ही निहारो..
इसलिए हम अक्सर गीले रेत और अबरख का एक टीला बना लेते है।

Saturday, 17 May 2014

रँग-मँच


नेपथ्य का संवाद..

अंतर्मन सा होकर..

नाटकीय शव का प्रारूप है।

और मूक किरदार..
अपने हाव-भाव से..
रँग-मँच पर बुनता एक रूप है।

दर्शकों में बैठा हर कोई..
इस खेल को समझता..
सिर्फ़ अपने अनुरूप है।

फ़िर संवाद से लेकर..
किरदार की खूबियों तक..
खुद का टटोलता हर रूप है।

तालियाँ बज उठी..
कुर्सियाँ सरक गयी..
बस ज़िन्दगी इसी मँच के अनुरूप है।

Friday, 9 May 2014

Escalator

Escalator....

Escalator का रुख देखा,
कितना बेपरवाह और मग्न।
कदम बढ़ाऊँ तो वह भी चले,
वरना जड़वत सा वहीँ पड़े रहे।

एक दौर शुरू होता जैसे जन्म के बाद,
कुछ ऐसा चलता मेरे एक कदम के बाद।
मैं तो रुक गया आराम की लालसा में,
पर यह बढ़ रहा अपनी ही धुन में।

दोनों पहुंचे अपनी मंज़िल पर,
पर यह तो फिर चल पड़ा दो घड़ी रुक कर।
जैसे मेरा ही अस्तित्व कितना स्वार्थी सा है,
बस अपने मतलब से सरोकार रखता है।

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