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Wednesday, 10 December 2014

...... बस तुम्हें चाहता हूँ। / काव्यशाला an anthology

……बस तुम्हें चाहता हूँ।

आज कुछ रुमनियत लिखना चाहता हूँ,
तुम्हें अपने लफ़्ज़ों में पिरोना चाहता हूँ।

ख्याल हो तुम मेरा एहसास हो तुम,
इस मोहब्बत को ताउम्र जीना चाहता हूँ।

इबादत हो तुम मेरा ख़ुदा हो तुम,
क़ल्मा बनाकर तुम्हें रोज़ पढ़ना चाहता हूँ।

मिलते है रोज़ और भी हुस्न नज़ारों में,
सिर्फ तुम्हें अपनी परछायीं बनाना चाहता हूँ।

अब आकर थाम लो मेरा हाथ उम्र भर के लिए,
जहाँ में मोहब्बत का अंदाज़ दिखाना चाहता हूँ।

Monday, 21 July 2014

A Published Anthology निर्झरिका 2/5

इन्द्रधनुष।

कुछ गहरे से …कुछ हल्के से,
इन्द्रधनुषी… रंग से है रिश्ते।

हर रँग के तरह… अपना ही,
एक वजूद लिए… होते है रिश्ते।

प्यार और …तकरार की बारिश में,
भीग कर खिलते है …रंगीन रिश्ते।

आकाश सी …बड़ी ज़िन्दगी को भी,
रंगीन सी छटा से… खुश रखते है रिश्ते।

हल्की सी बारिश …फिर गुनगुनी धुप,
ऐसे ही एहसासों से… घिरे है रिश्ते।

एक दूजे से बंधे …जाने-अनजाने में,
रंगों में जुड़े से लगते हैे …हर रिश्ते।

चाहे करीब हो …या हो दूरियाँ,
दिलों में घर किये होते है… रिश्ते।

ज़िंदगी खत्म हो …या बढ़े दूरियाँ
अपनी अह्मिअत …जताते है रिश्ते।

Thursday, 1 May 2014

जब तक है जान... Published Poetry

This was written long back when the movie was released. Its not the same one what you people have heard/seen in the movie. Its written by me & its close to my heart. A voice-over has also been given to these verses. Hope you all would love & appreciate. Fortunately this poetry got published in 
Dainik Jagran/lucknow/vithika/page22/monday/5may2014





उन शोख सी अदाओं में यूँ तेरा बेतरतीबी से मचल जाना,
बारिश की बूंदों को हथेली पे उछाल के यूँ तेरा चहक जाना,
तुझे ताउम्र ऐसे ही निहारता रहूँगा मैं,
जब तक है जान, जब तक है जान ....!

तेरी हलकी सी मुस्कुराहट पे आँखों का झुक जाना,
न कुछ कहते हुए भी पल्लू का उँगलियों में लिपट जाना,
तेरे ऐसे ही अनकहे जज़्बातों से जिंदा रहूँगा मैं,
जब तक है जान, जब तक है जान ....! 

उस गुस्ताख़ हवा की शैतानी से तेरी ओढ़नी का सर से सरक जाना,
इन हवाओं में तेरी महक से समां में नशा सा छा जाना,
ऐसे ही तुझे अपनी इबादत में शामिल करता रहूँगा मैं,
जब तक है जान, जब तक है जान ....!

तेरे कुछ पल के इंतज़ार में यूँ बेपरवाह हर लम्हा गुज़ारना ,
सूखे पत्तों के ढेर पे भी तेरा मखमली से एहसास को पाना,
हर ज़र्रे में इश्क का फ़लसफ़ा सजाता रहूँगा मैं ,
जब तक है जान, जब तक है जान ....!

Thursday, 27 March 2014

धर्म और इंसानियत। - Published Poetry

धर्म और इंसानियत।

धर्म का जन्म पहले हुआ या इंसानियत पहले आयी,
कुछ इसी उलझन में आज की सामाजिक व्यवस्था है बिगड़ गयी।
धर्म के नाम पर इन्सान आडम्बर से बाझ नही आते,
और अपनी ही इंसानियत को बेशर्मी से सरेआम है बेच खाते।
धर्म की आड़ में अपने समाज में कितने कुकर्म हो रहे है,
और इंसान अपनी ही बिरादरी में दिनोंदिन धूमिल हो रहे है।


इन्सान खुद तो बँट गया ना जाने कितने वर्गों में,
और भगवान को भी बाँट लिया अपने अनुसार धर्मों में।
बस उपदेश भर है की इश्वर एक है,
दरअसल में विडम्बना यह है कि इंसान अनेक है।
पल भर में पत्थर और शुन्य को सब कुछ मान लेते है,
लेकिन इंसानियत के वक़्त जाति और धर्म पहले गिने जाते है।
ख़ुदा ने दुनिया में इंसान बनाया कुछ सोचकर,
और इंसानों ने दुनिया बदल दी धर्मों के नाम पर।


आज भाईचारा किताबों में सिमट गयी है,
सिर्फ ग्रंथों की लड़ाई सर्वोपरि हो गयी है।
खून का रंग भले सबका सुर्ख होता है,
लेकिन उसका अस्तित्व घायल जिस्म से होता है।
जहाँ धर्म ने आपसी सौहार्द के बजाय नफरत को जन्म दिया है,
वहीँ इंसान ने धर्म को विभित्स बना उसे कलंकित कर दिया है।


This is a published poetry, so you can refer below link also:

http://prabhatpunj.inprabhat.com/sahityasamvad/%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%87%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%A4-%E0%A5%A4.html

Saturday, 15 March 2014

रिश्ते...

रिश्ते।

ख़ुदा की बनायी दुनिया में,
लोगों का लगा हुआ हुजूम है,
जहाँ जाने-अनजाने में,
ना जाने कितने रिश्ते बन जाते है।

कभी अनजानों की शक्ल लिए,
कोई परिचित से मिल जाते है,
तो कभी अपने ही अपना रंग बदले,
बेगानों की क़तार मे नज़र आते है।

संसार में इंसान के पैदा होते ही,
रिश्तों के मज़हब घर कर जाते है,
और फिर इन्ही रिश्तों की गिरफ्त में,
ख़ुद की साँसों के कर्ज़दार हो जाते है।

कभी भावनाओं की बेपरवाही में,
रिश्तों के वास्ते गिनाये जाते है,
तो कभी इन्ही रिश्तों की आड़ में,
स्वार्थ सिद्धि के उपाय बनाये जाते है।

ताउम्र मतलबी रिश्तों के पुलिंदें में,
इन्सान लगातार गोते लगाता रहता है,
दूसरों को खुश करने क चक्कर में,
खुद के वजूद की हत्या करता जाता है।

जज़्बातों के कठघरे में,
रिश्तों की पैरवी चलती रहती है,
इच्छाओं की इतराते क़दमों में,
उसूलों की बेड़ियाँ डाली जाती है।

अपने जन्म से लेकर मरने में,
इंसान एक सफ़र तय कर जाता है,
लेकिन रिश्तों की होड़ में,
खुद को सवालों से घिरा पाता है।

इस ज़िन्दगी के बड़े सफ़र में,
सभी रिश्ते अपनी अह्मिअत जताते है,
कभी समूह तो कभी तन्हाई में,
हर पहचान का कारोबार किये जाते है।

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