क्षितिज वाला मुक़ाम।
वह जो क्षितिज है..धुँधला सा..
मुझे वहीँ पहुँचना है..
यह देखने के लिए की..
मुझे वहाँ से भी यह धुँधला लगता है..
या फिर किसी को मैं भी धुँधला दिखता हूँ।
यह जो खुला सफ़र है..इसे सीना है,
यह जो गुज़रा दौर है..इसे जीना है,
यह जो नयी तड़प है..इसे पीना है।
इससे पहले कि सूरज की रौशनी,
अँधेरों में कहीं गुम हो जाए..
इस भोर को मुझे,
सुबह होने से पहले देखना है।
मैं भी तो देखूँ ज़रा..
इस बेपरवाह वक़्त की रफ़्तार।
फ़िर चाहे कोशिशों की गर्मी मुझे झुलसाए..
या क़िस्मत की पुरवाई मुझे सताए..
अब इस क्षितिज वाले मुक़ाम से..
निश्चित रूबरू होना है।।