Thursday, 24 April 2014

चुनाव - A Published Poetry

चुनाव...

आज़ाद भारत में एक व्यवस्था बनायी गयी है,
जनता अपना प्रतिनिधि खुद चुने ऐसी प्रणाली दी गयी है।

जनता का वो विश्वसनीय देश का कर्णधार है,
जिसके इशारों पर राजनीति का होता व्यापार है।

५ साल की सत्ता में ना जाने कितने दौर आते है,
जनता की हर उम्मीद उसी तरह धरे रह जाते है।

इस राजनीति के खेल में नेता आते जाते रहते है,
बस जनता हर साल मूक दर्शक का किरदार निभाते है

चुनाव के वक़्त का चुनाव भी नेता खुद तय करते है,
और जनता एकजुट मन मसोस कर सब सहते रहते है।

वादों का पुलिंदा अक्सर देखने को मिलता है,
जनता फिर भी हर साल तवज्जो दिए जाती है।

मिलीभगत से चुनाव के बहाने जेबें भरी जाती है,
और जनता हर बार चुनाव के बहाने ठगी जाती है।

बेबुनियादी मुद्दों का अक्सर माहौल बनाया जाता है,
जनता के मुश्किलों को मखौल बता दरकिनार किया जाता है।

पूंजीवादियों की सिफारिश में महंगाई घर आती है,
और आम जनता की खुशियाँ आँसुओं में बह जाती है।

चुनाव में चुनने का सवाल बस सवाल बनी रह जाती है
और जनता की किस्मत किसी सिरफिरे के हाथ लग जाती है

आज प्रजातंत्र में सत्तारूढ़ अपना शासन चलाते है
और प्रजा अपने को शोषित होते देख जिए जाते है।

यह चुनाव का अभिप्राय कुछ धुंधला सा है,
सच में यह पारदर्शिता की खाल में स्वार्थ का साधन सा है।

Sunday, 6 April 2014

क्षितिज वाला मुक़ाम

क्षितिज वाला मुक़ाम।

वह जो क्षितिज है..धुँधला सा..
मुझे वहीँ पहुँचना है..
यह देखने के लिए की..
मुझे वहाँ से भी यह धुँधला लगता है..
या फिर किसी को मैं भी धुँधला दिखता हूँ।

यह जो खुला सफ़र है..इसे सीना है,
यह जो गुज़रा दौर है..इसे जीना है,
यह जो नयी तड़प है..इसे पीना है।

इससे पहले कि सूरज की रौशनी,
अँधेरों में कहीं गुम हो जाए..
इस भोर को मुझे,
सुबह होने से पहले देखना है।

मैं भी तो देखूँ ज़रा..
इस बेपरवाह वक़्त की रफ़्तार।

फ़िर चाहे कोशिशों की गर्मी मुझे झुलसाए..
या क़िस्मत की पुरवाई मुझे सताए..
अब इस क्षितिज वाले मुक़ाम से..
निश्चित रूबरू होना है।।

Thursday, 27 March 2014

धर्म और इंसानियत। - Published Poetry

धर्म और इंसानियत।

धर्म का जन्म पहले हुआ या इंसानियत पहले आयी,
कुछ इसी उलझन में आज की सामाजिक व्यवस्था है बिगड़ गयी।
धर्म के नाम पर इन्सान आडम्बर से बाझ नही आते,
और अपनी ही इंसानियत को बेशर्मी से सरेआम है बेच खाते।
धर्म की आड़ में अपने समाज में कितने कुकर्म हो रहे है,
और इंसान अपनी ही बिरादरी में दिनोंदिन धूमिल हो रहे है।


इन्सान खुद तो बँट गया ना जाने कितने वर्गों में,
और भगवान को भी बाँट लिया अपने अनुसार धर्मों में।
बस उपदेश भर है की इश्वर एक है,
दरअसल में विडम्बना यह है कि इंसान अनेक है।
पल भर में पत्थर और शुन्य को सब कुछ मान लेते है,
लेकिन इंसानियत के वक़्त जाति और धर्म पहले गिने जाते है।
ख़ुदा ने दुनिया में इंसान बनाया कुछ सोचकर,
और इंसानों ने दुनिया बदल दी धर्मों के नाम पर।


आज भाईचारा किताबों में सिमट गयी है,
सिर्फ ग्रंथों की लड़ाई सर्वोपरि हो गयी है।
खून का रंग भले सबका सुर्ख होता है,
लेकिन उसका अस्तित्व घायल जिस्म से होता है।
जहाँ धर्म ने आपसी सौहार्द के बजाय नफरत को जन्म दिया है,
वहीँ इंसान ने धर्म को विभित्स बना उसे कलंकित कर दिया है।


This is a published poetry, so you can refer below link also:

http://prabhatpunj.inprabhat.com/sahityasamvad/%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%87%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%A4-%E0%A5%A4.html

Sunday, 16 March 2014

मेरे होली के रँग।

रँगों के महफ़िल में हम क्या तेरा ज़िक्र करें,
जब हर ज़र्रे में मुझे बस तेरा ही अक़्स दिखा।

कभी सुनहली गेसुओं से तूने समां में रँग बिखेरा,
तो कभी अपने कत्थई आँखों का जाम उड़ेला।

तेरे गुलाबी गालों पर दमकती धुप की क्या बात करें,
जब लाल रँग का वजूद सिर्फ़ तेरे लबों से निखरा।

क्यूँ न होली के बहाने इस बार फिर नया रंग घोलें,
मुझे तो हर रँग का फ़लसफ़ा बस तुझसे ही मिला।

Saturday, 15 March 2014

रिश्ते...

रिश्ते।

ख़ुदा की बनायी दुनिया में,
लोगों का लगा हुआ हुजूम है,
जहाँ जाने-अनजाने में,
ना जाने कितने रिश्ते बन जाते है।

कभी अनजानों की शक्ल लिए,
कोई परिचित से मिल जाते है,
तो कभी अपने ही अपना रंग बदले,
बेगानों की क़तार मे नज़र आते है।

संसार में इंसान के पैदा होते ही,
रिश्तों के मज़हब घर कर जाते है,
और फिर इन्ही रिश्तों की गिरफ्त में,
ख़ुद की साँसों के कर्ज़दार हो जाते है।

कभी भावनाओं की बेपरवाही में,
रिश्तों के वास्ते गिनाये जाते है,
तो कभी इन्ही रिश्तों की आड़ में,
स्वार्थ सिद्धि के उपाय बनाये जाते है।

ताउम्र मतलबी रिश्तों के पुलिंदें में,
इन्सान लगातार गोते लगाता रहता है,
दूसरों को खुश करने क चक्कर में,
खुद के वजूद की हत्या करता जाता है।

जज़्बातों के कठघरे में,
रिश्तों की पैरवी चलती रहती है,
इच्छाओं की इतराते क़दमों में,
उसूलों की बेड़ियाँ डाली जाती है।

अपने जन्म से लेकर मरने में,
इंसान एक सफ़र तय कर जाता है,
लेकिन रिश्तों की होड़ में,
खुद को सवालों से घिरा पाता है।

इस ज़िन्दगी के बड़े सफ़र में,
सभी रिश्ते अपनी अह्मिअत जताते है,
कभी समूह तो कभी तन्हाई में,
हर पहचान का कारोबार किये जाते है।

Sunday, 9 March 2014

एक आइना पारदर्शी सा...।

एक आइना पारदर्शी सा..।

एक आइना जो पारदर्शी सा है,
मेरे ही सामने लगा रहता है,
बुत सा मैं खुद उसे देखता हूँ,
हरकतें उसमें मेरा अक़्स करता है।

सामने जब मैं खुद हूँ इसके,
तो फ़िर आईने में कौन दिखता है,
जो मेरा ही प्रतिबिम्ब बनकर,
न जाने किसकी नक़्ल करता है।

छू भी नही सकता उसे,
कुछ कह भी नही सकता उससे,
फ़िर क्यूँ सिर्फ यह अक़्स,
हरपल मेरे ही रूबरू रहता है।

आइना तो सच बोलता है जब,
फ़िर मुझसे कुछ क्यूँ नही कहता है,
आइना तोड़ कर खत्म तो कर दूँ सब,
पर टुकड़ों में मेरा ही अक़्स रहता है।

Wednesday, 5 March 2014

ऐसा है इश्क़...।

ऐसा है इश्क़...।

अच्छा मुकाम आया है अब अपने इश्क़ में,
आज यार हुआ है ख़ुदा अपने यार के इश्क़ में।

एक गुलिस्ताँ सा बना लिया है इर्द-गिर्द अपने,
इस क़दर शामिल है ज़िन्दगी में महबूब अपने,
तमाम फिज़ा जैसे डूबी हो रँग-ए-इश्क़ में,
आज यार हुआ है ख़ुदा अपने यार के इश्क़ में।

चिलमन-ए-हुस्न से उसने आज,
आफ़ताबी सा किया है मेरा जहाँ आज,
मिल गयी हो जैसे कायनात मुझे इश्क़ में,
आज यार हुआ है ख़ुदा अपने यार के इश्क़ में।

नाज़ तो उनके ख़ुदा ने भी खूब उठाये होंगे,
सितारों ने भी न जाने कितने किस्से सुनाये होंगे,
हम तो मशगुल रहते है उनके इबादत-ए-इश्क में,
आज यार हुआ है ख़ुदा अपने यार के इश्क़ में।

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