Showing posts with label hindi kavita. Show all posts
Showing posts with label hindi kavita. Show all posts

Saturday 26 July 2014

A Published Anthology निर्झरिका 3/5

गुमशुदा एहसास।

कुछ मेरे एहसास थे जो आज गुमशुदा से हैं,
मुझसे नाराज़ हैं या फिर तुझसे जुदा से हैं,
... बस इस बात का इल्म नही।

जो मचलते थे कभी बखूबी तेरे मिलने पर,
इतराते थे मदमस्त हो तेरी मुस्कान पर,
... अब उनकी परछाई भी नही।

वो एहसास जो मेरे जीने की वजह थे,
तेरे वादों के सहारे जो कभी मचलते थे,
... आज उनका कोई पता ही नही।

वो जज़्बातों का कारवाँ जो दूर तक चला,
कभी अकेले दौड़ा तो कभी साथ चला,
... आज उनका कोई निशाँ तक नही।

Monday 21 July 2014

A Published Anthology निर्झरिका 2/5

इन्द्रधनुष।

कुछ गहरे से …कुछ हल्के से,
इन्द्रधनुषी… रंग से है रिश्ते।

हर रँग के तरह… अपना ही,
एक वजूद लिए… होते है रिश्ते।

प्यार और …तकरार की बारिश में,
भीग कर खिलते है …रंगीन रिश्ते।

आकाश सी …बड़ी ज़िन्दगी को भी,
रंगीन सी छटा से… खुश रखते है रिश्ते।

हल्की सी बारिश …फिर गुनगुनी धुप,
ऐसे ही एहसासों से… घिरे है रिश्ते।

एक दूजे से बंधे …जाने-अनजाने में,
रंगों में जुड़े से लगते हैे …हर रिश्ते।

चाहे करीब हो …या हो दूरियाँ,
दिलों में घर किये होते है… रिश्ते।

ज़िंदगी खत्म हो …या बढ़े दूरियाँ
अपनी अह्मिअत …जताते है रिश्ते।

Tuesday 15 July 2014

A Published Anthology निर्झरिका 1/5

शुक्तिका प्रकाशन की हिंदी साहित्य विशेषांक "निर्झारिका" में मेरी 5 कविताओं को प्रकाशित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आप लोगों के समक्ष पेश कर रहा हूँ। उम्मीद है पसंद आएगी...

वादों का जनाज़ा।

वादे...जो पुरे न हो सके,
कुछ तुमने किये तो कुछ मैंने किये थे।

वादे...जो मुक़म्मल न हो सके,
कभी वक़्त की कमी रही कभी खुद बहुत रफ़्तार में रहे।

वादे...जो वफ़ा न कर सके,
कभी रिश्तों की पैरवी थी तो कभी खुद रिश्तों से परे थे।

वादे...जो अपना वजूद न पा सके,
कभी जज़्बातों में बह गए तो कभी उनको ही भूल गए।

वादे...जो कभी अपने न हो सके,
कभी एहसासों के साथ थे तो कभी एहसास ही साथ नही थे।

वादे...जो फ़ौलाद न हो सके,
कभी खुद के लिए टूटे तो कभी किसी रिश्ते के लिए।

वादे...जो दम भर भी न जी सके,
कभी आसुओं में बहे तो कभी पन्नों पर स्याही बन बिखर गए।

Sunday 29 June 2014

कन्या और उसके रूप...

कभी देवी हूँ इस नभ के नीचे, कभी सिर्फ स्त्री हूँ धरा पर।

बोझ हूँ मैं जिम्मेदारियों के नीचे, और एक खर्च हूँ हर परिवार पर।

कभी कमसिन हूँ कलम के नीचे, और हवस हूँ  बिस्तर पर।

बचपन गुम मेरी मज़दूरी के नीचे, क्यूँकी गरीबी है मेरे जिस्म पर।

शिक्षा बेपरवाह है ज़रूरत के नीचे, लेकिन रोज़गार का बोझ है मेरे सिर पर।

Wednesday 11 June 2014

सागर किनारे....

भीगे समंदर के किनारे...
यह गीले अलसाए से रेत..
मेरे पाँव में छुपकर साथ चले आते है।

और चाँदनी की ठंडाई में...
नहाये कुछ अबरख...
खुद की शरारती चमक पर मुझे उकसाते है।

की आओ एक पहर गुज़ारो...
कम से कम समंदर को ही निहारो..
इसलिए हम अक्सर गीले रेत और अबरख का एक टीला बना लेते है।

Saturday 17 May 2014

रँग-मँच


नेपथ्य का संवाद..

अंतर्मन सा होकर..

नाटकीय शव का प्रारूप है।

और मूक किरदार..
अपने हाव-भाव से..
रँग-मँच पर बुनता एक रूप है।

दर्शकों में बैठा हर कोई..
इस खेल को समझता..
सिर्फ़ अपने अनुरूप है।

फ़िर संवाद से लेकर..
किरदार की खूबियों तक..
खुद का टटोलता हर रूप है।

तालियाँ बज उठी..
कुर्सियाँ सरक गयी..
बस ज़िन्दगी इसी मँच के अनुरूप है।

Friday 9 May 2014

Escalator

Escalator....

Escalator का रुख देखा,
कितना बेपरवाह और मग्न।
कदम बढ़ाऊँ तो वह भी चले,
वरना जड़वत सा वहीँ पड़े रहे।

एक दौर शुरू होता जैसे जन्म के बाद,
कुछ ऐसा चलता मेरे एक कदम के बाद।
मैं तो रुक गया आराम की लालसा में,
पर यह बढ़ रहा अपनी ही धुन में।

दोनों पहुंचे अपनी मंज़िल पर,
पर यह तो फिर चल पड़ा दो घड़ी रुक कर।
जैसे मेरा ही अस्तित्व कितना स्वार्थी सा है,
बस अपने मतलब से सरोकार रखता है।

Monday 5 May 2014

हमें तो लुट लिया मिलके हुस्न वालों ने

This has been written modifying the Original Qawaali Lyric "Humein To Loot Liya Milke Husn Walon Ne".
Since I don't see much Qawaali Lyric in movies, so I have tried to pen it as per my own thoughts and understanding. Hope you would find it interesting & entertaining.



हमें तो लुट लिया मिलके हुस्न वालों ने ..  काले काले बालों ने गोरे गोरे गालों ने .... 


कुछ अपने अंदाज़ में, कुछ अपने अलफ़ाज़ में ...
पेश-ए-खिदमत है :


हमें तो लुट लिया मिलके हुस्न वालों ने
काले काले बालों ने गोरे गोरे गालों ने

निगाहें मिला के जब वो यूँ ही शरमाये
जवां दिलों में जैसे हलचल सी मच जाये
होठों पे उनके हलकी से हंसी जब आये
न जाने कितनो के जवां दिल बहक जाये
चेहरे पे गिरी लटों में से जब झांके
उस अंदाज़ पे कोई कैसे न फ़िदा हो जाये
फिर उसी लटों को चेहरे से हटाये खुद ही
बिना कहे इठला के चल देंगे बस यूँ ही
खुदा बचाए ऐसे आलम से ...
के कई दिल लुट गए ऐसे नजारों में ...

हमें तो लुट लिया मिलके हुस्न वालों ने
काले काले बालों ने गोरे गोरे गालों ने।।

खनकाते हैं अपनी चूडियो को बस यूँही
ताकि नज़र मिलाने को तरसे बस हम ही
फिर अपनी गेसुओं को को खुद ही सुलझाये
ये देख के कोई आशिक कैसे काबू पाए
जो पास जाके कह दे हम हाल दिल का
वो ताउम्र ले लेंगे जवाब सोचने का
पूछती रहेंगी अपनी तारीफ़ के किस्से
जो न बोलो तो रूठ जाएँ फिर तुमसे
खुदा बचाए ऐसे आलम से ...
के कई दिल लुट गए ऐसे नजारों में ...

हमें तो लुट लिया मिलके हुस्न वालों ने
काले काले बालों ने गोरे गोरे गालों ने।।

हुस्न की पैरवी वो ही खुद करते
और इश्क को अपनी क़दमों में ही रखते
जो कह दो के जान हाज़िर है
कह देंगे आज आसमान पाने की ख्वाहिश है
आशिकों का कारवां उन्हें बड़ा पसंद होता
हर तारीफ़ पे उनका नया अंदाज़ होता
न इकरार न तो इज़हार इनका है मिलता
बस आशिकों को बेवजह इनकार है मिलता
खुदा बचाए ऐसे आलम से ...
के कई दिल लुट गए ऐसे नजारों में ...

हमें तो लुट लिया मिलके हुस्न वालों ने
काले काले बालों ने गोरे गोरे गालों ने।।

Thursday 1 May 2014

जब तक है जान... Published Poetry

This was written long back when the movie was released. Its not the same one what you people have heard/seen in the movie. Its written by me & its close to my heart. A voice-over has also been given to these verses. Hope you all would love & appreciate. Fortunately this poetry got published in 
Dainik Jagran/lucknow/vithika/page22/monday/5may2014





उन शोख सी अदाओं में यूँ तेरा बेतरतीबी से मचल जाना,
बारिश की बूंदों को हथेली पे उछाल के यूँ तेरा चहक जाना,
तुझे ताउम्र ऐसे ही निहारता रहूँगा मैं,
जब तक है जान, जब तक है जान ....!

तेरी हलकी सी मुस्कुराहट पे आँखों का झुक जाना,
न कुछ कहते हुए भी पल्लू का उँगलियों में लिपट जाना,
तेरे ऐसे ही अनकहे जज़्बातों से जिंदा रहूँगा मैं,
जब तक है जान, जब तक है जान ....! 

उस गुस्ताख़ हवा की शैतानी से तेरी ओढ़नी का सर से सरक जाना,
इन हवाओं में तेरी महक से समां में नशा सा छा जाना,
ऐसे ही तुझे अपनी इबादत में शामिल करता रहूँगा मैं,
जब तक है जान, जब तक है जान ....!

तेरे कुछ पल के इंतज़ार में यूँ बेपरवाह हर लम्हा गुज़ारना ,
सूखे पत्तों के ढेर पे भी तेरा मखमली से एहसास को पाना,
हर ज़र्रे में इश्क का फ़लसफ़ा सजाता रहूँगा मैं ,
जब तक है जान, जब तक है जान ....!

Thursday 24 April 2014

चुनाव - A Published Poetry

चुनाव...

आज़ाद भारत में एक व्यवस्था बनायी गयी है,
जनता अपना प्रतिनिधि खुद चुने ऐसी प्रणाली दी गयी है।

जनता का वो विश्वसनीय देश का कर्णधार है,
जिसके इशारों पर राजनीति का होता व्यापार है।

५ साल की सत्ता में ना जाने कितने दौर आते है,
जनता की हर उम्मीद उसी तरह धरे रह जाते है।

इस राजनीति के खेल में नेता आते जाते रहते है,
बस जनता हर साल मूक दर्शक का किरदार निभाते है

चुनाव के वक़्त का चुनाव भी नेता खुद तय करते है,
और जनता एकजुट मन मसोस कर सब सहते रहते है।

वादों का पुलिंदा अक्सर देखने को मिलता है,
जनता फिर भी हर साल तवज्जो दिए जाती है।

मिलीभगत से चुनाव के बहाने जेबें भरी जाती है,
और जनता हर बार चुनाव के बहाने ठगी जाती है।

बेबुनियादी मुद्दों का अक्सर माहौल बनाया जाता है,
जनता के मुश्किलों को मखौल बता दरकिनार किया जाता है।

पूंजीवादियों की सिफारिश में महंगाई घर आती है,
और आम जनता की खुशियाँ आँसुओं में बह जाती है।

चुनाव में चुनने का सवाल बस सवाल बनी रह जाती है
और जनता की किस्मत किसी सिरफिरे के हाथ लग जाती है

आज प्रजातंत्र में सत्तारूढ़ अपना शासन चलाते है
और प्रजा अपने को शोषित होते देख जिए जाते है।

यह चुनाव का अभिप्राय कुछ धुंधला सा है,
सच में यह पारदर्शिता की खाल में स्वार्थ का साधन सा है।

Sunday 6 April 2014

क्षितिज वाला मुक़ाम

क्षितिज वाला मुक़ाम।

वह जो क्षितिज है..धुँधला सा..
मुझे वहीँ पहुँचना है..
यह देखने के लिए की..
मुझे वहाँ से भी यह धुँधला लगता है..
या फिर किसी को मैं भी धुँधला दिखता हूँ।

यह जो खुला सफ़र है..इसे सीना है,
यह जो गुज़रा दौर है..इसे जीना है,
यह जो नयी तड़प है..इसे पीना है।

इससे पहले कि सूरज की रौशनी,
अँधेरों में कहीं गुम हो जाए..
इस भोर को मुझे,
सुबह होने से पहले देखना है।

मैं भी तो देखूँ ज़रा..
इस बेपरवाह वक़्त की रफ़्तार।

फ़िर चाहे कोशिशों की गर्मी मुझे झुलसाए..
या क़िस्मत की पुरवाई मुझे सताए..
अब इस क्षितिज वाले मुक़ाम से..
निश्चित रूबरू होना है।।

Thursday 27 March 2014

धर्म और इंसानियत। - Published Poetry

धर्म और इंसानियत।

धर्म का जन्म पहले हुआ या इंसानियत पहले आयी,
कुछ इसी उलझन में आज की सामाजिक व्यवस्था है बिगड़ गयी।
धर्म के नाम पर इन्सान आडम्बर से बाझ नही आते,
और अपनी ही इंसानियत को बेशर्मी से सरेआम है बेच खाते।
धर्म की आड़ में अपने समाज में कितने कुकर्म हो रहे है,
और इंसान अपनी ही बिरादरी में दिनोंदिन धूमिल हो रहे है।


इन्सान खुद तो बँट गया ना जाने कितने वर्गों में,
और भगवान को भी बाँट लिया अपने अनुसार धर्मों में।
बस उपदेश भर है की इश्वर एक है,
दरअसल में विडम्बना यह है कि इंसान अनेक है।
पल भर में पत्थर और शुन्य को सब कुछ मान लेते है,
लेकिन इंसानियत के वक़्त जाति और धर्म पहले गिने जाते है।
ख़ुदा ने दुनिया में इंसान बनाया कुछ सोचकर,
और इंसानों ने दुनिया बदल दी धर्मों के नाम पर।


आज भाईचारा किताबों में सिमट गयी है,
सिर्फ ग्रंथों की लड़ाई सर्वोपरि हो गयी है।
खून का रंग भले सबका सुर्ख होता है,
लेकिन उसका अस्तित्व घायल जिस्म से होता है।
जहाँ धर्म ने आपसी सौहार्द के बजाय नफरत को जन्म दिया है,
वहीँ इंसान ने धर्म को विभित्स बना उसे कलंकित कर दिया है।


This is a published poetry, so you can refer below link also:

http://prabhatpunj.inprabhat.com/sahityasamvad/%E0%A4%A7%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AE-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%87%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%A4-%E0%A5%A4.html

Sunday 16 March 2014

मेरे होली के रँग।

रँगों के महफ़िल में हम क्या तेरा ज़िक्र करें,
जब हर ज़र्रे में मुझे बस तेरा ही अक़्स दिखा।

कभी सुनहली गेसुओं से तूने समां में रँग बिखेरा,
तो कभी अपने कत्थई आँखों का जाम उड़ेला।

तेरे गुलाबी गालों पर दमकती धुप की क्या बात करें,
जब लाल रँग का वजूद सिर्फ़ तेरे लबों से निखरा।

क्यूँ न होली के बहाने इस बार फिर नया रंग घोलें,
मुझे तो हर रँग का फ़लसफ़ा बस तुझसे ही मिला।

Saturday 15 March 2014

रिश्ते...

रिश्ते।

ख़ुदा की बनायी दुनिया में,
लोगों का लगा हुआ हुजूम है,
जहाँ जाने-अनजाने में,
ना जाने कितने रिश्ते बन जाते है।

कभी अनजानों की शक्ल लिए,
कोई परिचित से मिल जाते है,
तो कभी अपने ही अपना रंग बदले,
बेगानों की क़तार मे नज़र आते है।

संसार में इंसान के पैदा होते ही,
रिश्तों के मज़हब घर कर जाते है,
और फिर इन्ही रिश्तों की गिरफ्त में,
ख़ुद की साँसों के कर्ज़दार हो जाते है।

कभी भावनाओं की बेपरवाही में,
रिश्तों के वास्ते गिनाये जाते है,
तो कभी इन्ही रिश्तों की आड़ में,
स्वार्थ सिद्धि के उपाय बनाये जाते है।

ताउम्र मतलबी रिश्तों के पुलिंदें में,
इन्सान लगातार गोते लगाता रहता है,
दूसरों को खुश करने क चक्कर में,
खुद के वजूद की हत्या करता जाता है।

जज़्बातों के कठघरे में,
रिश्तों की पैरवी चलती रहती है,
इच्छाओं की इतराते क़दमों में,
उसूलों की बेड़ियाँ डाली जाती है।

अपने जन्म से लेकर मरने में,
इंसान एक सफ़र तय कर जाता है,
लेकिन रिश्तों की होड़ में,
खुद को सवालों से घिरा पाता है।

इस ज़िन्दगी के बड़े सफ़र में,
सभी रिश्ते अपनी अह्मिअत जताते है,
कभी समूह तो कभी तन्हाई में,
हर पहचान का कारोबार किये जाते है।

Sunday 9 March 2014

एक आइना पारदर्शी सा...।

एक आइना पारदर्शी सा..।

एक आइना जो पारदर्शी सा है,
मेरे ही सामने लगा रहता है,
बुत सा मैं खुद उसे देखता हूँ,
हरकतें उसमें मेरा अक़्स करता है।

सामने जब मैं खुद हूँ इसके,
तो फ़िर आईने में कौन दिखता है,
जो मेरा ही प्रतिबिम्ब बनकर,
न जाने किसकी नक़्ल करता है।

छू भी नही सकता उसे,
कुछ कह भी नही सकता उससे,
फ़िर क्यूँ सिर्फ यह अक़्स,
हरपल मेरे ही रूबरू रहता है।

आइना तो सच बोलता है जब,
फ़िर मुझसे कुछ क्यूँ नही कहता है,
आइना तोड़ कर खत्म तो कर दूँ सब,
पर टुकड़ों में मेरा ही अक़्स रहता है।

Wednesday 5 March 2014

ऐसा है इश्क़...।

ऐसा है इश्क़...।

अच्छा मुकाम आया है अब अपने इश्क़ में,
आज यार हुआ है ख़ुदा अपने यार के इश्क़ में।

एक गुलिस्ताँ सा बना लिया है इर्द-गिर्द अपने,
इस क़दर शामिल है ज़िन्दगी में महबूब अपने,
तमाम फिज़ा जैसे डूबी हो रँग-ए-इश्क़ में,
आज यार हुआ है ख़ुदा अपने यार के इश्क़ में।

चिलमन-ए-हुस्न से उसने आज,
आफ़ताबी सा किया है मेरा जहाँ आज,
मिल गयी हो जैसे कायनात मुझे इश्क़ में,
आज यार हुआ है ख़ुदा अपने यार के इश्क़ में।

नाज़ तो उनके ख़ुदा ने भी खूब उठाये होंगे,
सितारों ने भी न जाने कितने किस्से सुनाये होंगे,
हम तो मशगुल रहते है उनके इबादत-ए-इश्क में,
आज यार हुआ है ख़ुदा अपने यार के इश्क़ में।

Sunday 2 March 2014

तेरी काशिश...

तेरी गली का रास्ता कुछ ऐसा है की बेवजह कदम चले जाते है,
हम बेपरवाही में बढे जाते है और तेरे दरवाज़े पर ठहर जाते है।

तुमसे मिलना किस्मत था फ़िर हर मुलाक़ात ज़िन्दगी बन गयी,
अब तुम खुद देखो कैसे तुम्हारी तलब मेरी बंदिगी बन गयी।

हर मौसम का मज़ा दोगुना हो जाता है जब तुम मेरे होठों पर खिलती हो,
तमाम खुशियाँ अंगड़ाई लेती है जब तुम मेरे बाँहों में मचलती हो।

Thursday 6 February 2014

ज़िन्दगी .... एक सफरनामा

Life keeps moving and so we people. Hence, thought to write a journey through which everybody goes in life. Some time you really think that till-date how much or what you have achieved and how much life has given you. Though when we come to this earth, our hands are empty but the fingers form a fist signifying to hold..to survive...& when we are dying, again our hands are empty but this time we have an open palm..signifying you have lived and now its time to leave everything. All these I have tried to say in poetic form...hope you all could relate..& do give your opinions..


ज़िन्दगी .... एक सफरनामा :

थोडा पढ़ा-लिखा और काफी कुछ सीखा ,
ज़िन्दगी को जी , ज़िन्दगी से बहुत कुछ सीखा ..
एक सफ़र जो शुरू किया था ,
घर से दूर हो कर एक मंज़िल को तय किया था ..!
छोड़ के बचपन की गलियाँ ,
वो माँ के हाथों से सजी फूलों की क्यारियाँ ,
चला था एक मुकाम के लिए ..!
छोड़ के लड़कपन का साथ ,
वो पिता के नियमों को तोड़ने की शैतानियाँ ,
चला था उस मंज़िल के लिए ..!

कदम जो रखा नए से शहर की भींड में ,
भूल सा गया था खुद को उस चकाचौंध की नींद में ..
अनजान से शहर में तो कई लोग साथ थे ,
लेकिन सब मग्न थे आगे पहुँचने की होड़ में ..!
सफ़र कटता रहा और ज़िन्दगी बसर होती रही ,
रोज़ की दौड़ धुप में मंज़िल के तरफ कदम बढ़ती रही ..
कभी हार तो कभी जीत से मुलाक़ात होती रही ,
हर मोड़ पे आगाज़ और अंजाम की परछाई साथ चलती रही ..!

एक पल ठहर के सोचा देखूँ क्या हासिल किया अब तक ,
क्या खोया क्या पाया इस ज़िन्दगी में अब तक ..!
आँखें बंद की और मुट्ठियों को खोल दिया ,
सुना आकाश दिखा और हथेली खाली थी अब तक ...!
पूछा खुदा से ये कैसा सफ़र है ,
सब कुछ मिला फिर भी कुछ हासिल क्यूँ नहीं है ..
खुदा ने बस इतना कहा ये ही तो वो ज़िन्दगी है , 
जहाँ तेरी ही ज़िन्दगी तेरी हो कर भी तेरी नहीं है ...!! 

Lot of things came into mind while writing this, not everything was possible to write but still I tried to include every possible thing. Since Life never stops so we have to keep moving with a clear determination & commitment..You never know how far you can reach..may be more than sky..or stars..Keep Rocking..Always!!

Be Blessed & Be Happy!


Pic Courtesy : Self-Clicked

Thursday 2 January 2014

भ्रष्टाचार / Corruption

Corruption ki maar apna desh bahut dino se bhog raha hai aur iski jadein hamin ne daali hai...aur ham hi iska niwaaran kar sakte hai..ek aisi process hai jismein chain reaction hai aur har aadmi aaj ke date mein pareshaan hai. Isi pe ek roshni..


भ्रष्ट होती दुनिया भ्रष्ट होते लोग
खुदा की बनाई हुई दुनिया में
मतलबपरस्त हो गए है लोग ...
हर चीज़ को पाना है
हर मुकाम हासिल करना है
उस मंजिल पे पहुचने के लिए
अपना अस्तित्व इतना क्यों गिराना है ...
तुम दो मांगो वो चार मांगे
कोई छुपके मांगे तो कोई बेशर्मी से मांगे
माँगना भी तो भीख है
क्यूँ न इस भिखारी के हाथ काटे ...
किसी को अपने वर्चस्व की धौंस है
किसी को अपने ओहदे की धौंस है
अंधी भूख में ऐसे पागल हुआ है इंसान
इंसानियत तो गुम हुई न जाने कितने दूर कोस से ...
कानून भी बना हुआ था
आक्रोश भी खूब आया था
फिर क्यूँ नहीं कोई बदलाव आया
क्या स्वार्थ इंसान को इतना खा गया था ...
बेकार की बहस छोडो
औरों के गिरेबां में झांकना छोडो
और अपने में झांको
फिर अपने ईमान को टटोलो ...
गर तुमने कभी कोई लालच को जन्म नहीं दिया
अपने क्षणभंगुर चाहत की पूर्ति के लिए किसी को नीचा नही किया
तो आओ, ये लो ,
और उस भ्रष्टता पे सबसे पहला पत्थर तुम मारो ..!

मेरे अपने ....!

Yun toh pehle main sirf aashiqui pe likhta rahta tha, lekin ek bar ek aisi pic se nazar mili ke khud ko likhne se rok nhi paya tha & tab mere likhne ke maayne badal gaye..! Is Tasvir ne mujhe kaafi kuch sochne pr majbur kia & tab jo bhi dil-o-dimaag mein aaya usey ukera aur logon ke saamne rakha...aap bhi apni pratikriya zarur dijiye.




Pesh-e-Khidmat hai :

***** मेरे अपने ....!*****

तुम भी मेरे जैसे दिखते हो
मेरे ही जैसे लिबास में
मेरे ही समाज में
हर पल मेरे साथ रहते हो ...
किस्मत का दोष है
या फिर करनी का दोष है
जिसने दुनिया में मुझे ऐसे लाया
या फिर उस मौला का दोष है ...
ज़िन्दगी की दौड़ में तुम भी हो
हर साँस के कर्ज़दार तुम भी हो
फिर ऐसा क्यों है
तुम्हे हर ऐश-ओ-आराम से नवाज़ा गया
और मुझे ज़िल्लत में पाला गया ...
क्या गरीबी वो औकात है जिसकी कोई जात नही
या अमीरी वो आलम है जिसमे कभी रात नही
एक ही खुदा ने बनाई ये इंसानी जिस्म
फिर इंसानियत में कोई समानता क्यों नही ...
हम रोज़ आमने सामने
गुज़रते हुए एक दुसरे को देखते है
तुम हमें धिक्कार के नज़र फेरते हो
हम तुम्हे सपनो की तरह देखते है ...
ज़िन्दगी दी है उस खुदा ने
बस उसी को याद कर जिए जाते है ..
हर तपन को जाड़े की धुप समझ
बिना रुके बढे जाते है ...
क्यूंकि हम जो रुक गए
तो तुम्हारे ऐश-ओ-आराम खलल पड़  जाते हैं !

About Me

My photo
India
I share content and solutions for mental wellness at workplace! After spending a couple of decade in Retail Industry and Content writing, I am still writing! A Freelance Professional Copywriter, who is also an Author. If you are reading this, do leave your comments. Connect for paid projects. ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ Yahan wo har baat hai jisey aap sunne ke bajaye padhna pasand karte hain. Aapka saath milega toh har shabd ko ek manzil mil jayegi!